🦜प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में पक्षियों के नाम

संदर्भ: www.magbhaskar.in

1. महाभारत वनपर्व

महाद्रुमाणां शिखरेषु तस्थुर्मनोरमां वाचमुदीरयन्तः। मयूरदात्यूहचकोरसङ्धास्तस्मिन् वने बर्हिणकोकिलाश्च॥24.18॥

उस वन में (द्वैतवन में) बड़े-बड़े वृक्षों की ऊँची शाखाओं पर मयूर, चातक, चकोर, बर्हिण तथा कोकिल आदि पक्षी मनको भाने वाली मीठी बोली बोलते हुए बैठे थे।

2. सूरदास जी की कविता में

हमारे हरि हारिल की लकरी।
मन क्रम वचन नंद-नंदन उर, यह दृढ करि पकरी।
जागत सोवत स्वप्न दिवस-निसि, कान्ह-कान्ह जकरी।
सुनत जोग लागत है ऐसो, ज्यौं करूई ककरी।
सुतौ ब्याधि हमकौं लै आए, देखी सुनी न करी।
यह तौ सूर तिनहिं लै सौंपौ, जिनके मन चकरी।।

सूरदास जी की कविता में 'हारिल' का अर्थ है गोपियों के लिए श्रीकृष्ण का सहारा। जिस प्रकार हारिल पक्षी अपनी लकड़ी को कभी नहीं छोड़ता, उसी प्रकार गोपियाँ मन, कर्म और वचन से श्रीकृष्ण को दृढ़तापूर्वक पकड़े हुए हैं। यह पंक्ति गोपियों के कृष्ण के प्रति एकनिष्ठ प्रेम और लगाव को दर्शाती है।

  • हारिल की लकड़ी: यह गोपियों का कृष्ण के प्रति एक अटूट और दृढ़ प्रेम है। यह प्रेम उनके हृदय में पूरी तरह से बस गया है।
  • एकनिष्ठ प्रेम: गोपियाँ हारिल पक्षी की तरह हैं, जो अपनी लकड़ी को कभी नहीं छोड़ता। वे भी कृष्ण से मन, वचन और कर्म से मजबूती से जुड़ी हुई हैं।
  • उद्धव को उत्तर: जब उद्धव योग का उपदेश लेकर आते हैं, तो गोपियाँ कहती हैं कि उनका उपदेश उनके लिए कड़वी ककड़ी के समान है, क्योंकि उनका मन तो पहले से ही श्रीकृष्ण में लगा हुआ है, जैसे हारिल की लकड़ी में।